राजीव गांधी और अशोक सिंहल के रिश्ते ने अयोध्या में राम मंदिर की जमीन की राह तैयार की
नई दिल्ली. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ताला खुलवाकर अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के राम मंदिर आंदोलन को आधार दिया, तो तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बूटा सिंह की एक अहम सलाह ने जन्मभूमि की जमीन हासिल करने की राह आसान कर दी।
वाकया यह था कि 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद के सिविल जज के सामने राम जन्मभूमि में पूजा की अनुमति मांगी थी। 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने विवादित क्षेत्र का मालिकाना हक मस्जिद के पक्ष में मांगा था। इससे पहले निर्मोही अखाड़े ने 1959 में मंदिर का प्रबंधन अपने हाथ में लेने को लेकर केस दाखिल किया था। यानी हिंदू पक्ष की ओर से जो भी केस दायर हुआ था, उसमें कहीं भी जमीन के मालिकाना हक की मांग नहीं थी, बल्कि सिर्फ पूजा-पाठ और प्रबंधन को लेकर केस दाखिल हुए थे।
जब राम मंदिर का आंदोलन तेजी पकड़ने लगा और राजीव गांधी ने ताला खुलवाया, तब सरकार के गृह मंत्री बूटा सिंह ने कांग्रेस की वरिष्ठ नेता दिवंगत शीला दीक्षित के जरिए विहिप के अशोक सिंहल को संदेश भेजा था कि हिंदू पक्ष की ओर से दाखिल किसी केस में जमीन का मालिकाना हक नहीं मांगा गया है और ऐसे में उनका केस हारना लाजिमी है।
प्रयागराज में पड़ोसी थे गांधी-नेहरू और सिंघल परिवार
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में नेहरू परिवार और अशोक सिंहल के परिवार का घर आमने-सामने था और दोनों परिवारों में बेहद घनिष्ठता थी। इसी घनिष्ठता की वहज से राजीव ने परोक्ष रूप से इसमें सहयोग किया। विहिप के उपाध्यक्ष और मंदिर आंदोलन को बेहद करीब से जानने वाले चंपत राय का कहना है कि शीला दीक्षित ही राजीव गांधी और अशोक सिंहल के बीच सेतु का काम कर रहीं थी। यहीं से तीसरी अहम याचिका दाखिल करने की पटकथा शुरू हुई। बूटा सिंह की सलाह काम कर गई और आंदोलन से जुड़े नेता देवकीनंदन अग्रवाल और कुछ लोगों को पटना भेजा गया। यहां कानून के जानकार लाल नारायण सिन्हा और 5-6 लोग जमा हुए और तीसरे मुकदमे की पटकथा बनी। इसमें रामलला विराजमान और स्थान श्री रामजन्मभूमि को कानूनी अस्तित्व देने की मांग की गई।
1989 में जमीन पर मालिकाना हक की लड़ाई शुरू हुई
जुलाई 1989 में रामलला विराजमान मुकदमे का हिस्सा बने, जिससे जमीन पर मालिकाना हक की कानूनी लड़ाई शुरू हुई। लेकिन निर्मोही अखाड़ा यहां विहिप के खिलाफ खड़ा हो गया। 1950 में जब पूजा की अनुमति मिल गई थी, तब चढ़ावा आने लगा था जिसके प्रबंधन का काम अयोध्या की नगरपालिका को रिसीवर बनाकर किया जाने लगा था। इसके खिलाफ 9 साल बाद निर्मोही अखाड़ा अदालत गया था। यहां भी अखाड़े ने रिसीवर हटाने की मांग की, लेकिन जन्मभूमि को लेकर कोई दावा नहीं किया।
ये सभी केस के ऐसे पहलू थे, जो हिंदू पक्ष के खिलाफ जा रहे थे। बूटा सिंह ने समय रहते वह सलाह नहीं दी होती तो जमीन के मालिकाना हक का फैसला इतना आसान नहीं था। सिर्फ बूटा सिंह ही नहीं, विहिप बाबरी ढांचा विध्वंस के समय प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिंह राव की भूमिका की भी मुरीद है। राय का कहना है कि जिस तरह से 6 दिसंबर 1992 को ढांचा गिराया गया और 8 दिसंबर की दोपहर तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, उससे मंदिर आंदोलनकारियों को भगवान राम का चबूतरा तैयार करने और तिरपाल लगाने का समय मिल गया।
अयोध्या मामले पर पुस्तक लेकर आएगी विहिप
विहिप के चंपत राय और ओमप्रकाश सिंहल ऐसे व्यक्ति हैं जो अयोध्या मामले पर 40 दिन चली सुनवाई के दौरान लगातार सुप्रीम कोर्ट में डटे रहे। राय का कहना है कि जजों के हाव-भाव, सवाल-जवाब और भाव भंगिमा के आधार पर वह आखिरी सुनवाई के दिन यह भांप गया था कि मंदिर के पक्ष में यह फैसला 5-0 से आएगा। अब विहिप इस पूरी सुनवाई पर मीडिया में आई खबरों को पुस्तक का आकार देने जा रहा है, जिसकी तैयारी शुरू हो चुकी है।
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source https://www.bhaskar.com/national/news/ayodhya-rajiv-gandhi-ashok-singhal-relation-developed-base-of-ram-mandir-land-ownership-01684789.html
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