यहां की जनसंख्या 20 लाख से ज्यादा, इसमें आधी आबादी विस्थापितों की

जम्मू से मोहित कांधारी. “जम्मू में 30 साल गुजर गए लेकिन हमने कभी खुद को बाहरी महसूस नहीं किया। यहां के लोगों ने हमें समाज का हिस्सा माना और आज हम इनसे सांस्कृतिक रूप से जुड़े हुए हैं। इन्होंने हमें बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकारा है।” यह कहना है 1990 से कश्मीरी पंडितों के लिए आवाज उठा रहेसंगठन 'पनुन कश्मीर' के नेता डॉ. अग्निशेखर का। जम्मू शहर में रहने वाले अधिकांश शरणार्थियों की राय डॉ. अग्निशेखर से मिलती है।


दरअसल, मंदिरों के शहरके रूप में पहचाना जाने वाला जम्मू शहर आज शरणार्थियों का शहर बना हुआ है। यह आज से नहीं आजादी के बाद से ही शरणार्थियों कीजगह रहा। शहर की आबोहवा कुछ ऐसी है कि यहां लोगों को शरणार्थियों से ज्यादा दिक्कतें नहीं होती। हां, कभी-कभी विरोध होता है, लेकिन फिलहाल तो यह शहर ‘सभी का शहर’ बना हुआ है। शहर की जनसंख्या 20 लाख से ज्यादा है, इसमें आधी आबादी विस्थापितों की है। विभाजन के समय से लेकर 1965 और 1971 की जंग और फिर 1990 में कश्मीर घाटी में उग्रवाद से लेकर म्यांमार संकट के बाद यहां शरणार्थियों की संख्या लगातार बढ़ती ही गई। शहर ने भी जरूरतमंदों को अपने दिल में जगह दी।


सरकारी रिकॉर्ड में पाकिस्तान के 5,764 शरणार्थी रजिस्टर लेकिन दावा 20 हजार का

विभाजन के समयपाकिस्तान से विस्थापित हजारों परिवार दंगों से बचते हुए जम्मू के मैदानी इलाकों में आए। सरकार के मुताबिक, यहां पश्चिमी पाकिस्तान से आए 5,764 शरणार्थी परिवार रजिस्टर्ड हैं, लेकिन पश्चिम पाकिस्तान शरणार्थी एक्शन कमेटी के अध्यक्ष लाभाराम गांधी का दावा है कि आज भी सरकार के पास कोई आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है। वे बताते हैं कि यहां राज्य सरकारों ने जम्मू में पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थी परिवारों की सटीक संख्या को लेकर केंद्र सरकार को हमेशा गुमराह किया। लाभाराम के मुताबिक, यहां 19,960 शरणार्थी परिवार हैं।


आर्टिकल 370 और 35 ए हटने के बादसुधरेंगे हालात : पश्चिमी पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों को अब तक स्थायी निवास प्रमाण पत्र नहीं मिले थे। ये लोग संपत्ति रखने के अधिकार, राज्य सरकार में रोजगार, पंचायत, नगरपालिकाओं और विधान सभा चुनावों में भागीदारी, सरकारी तकनीकी शिक्षा संस्थानों में एडमिशन, छात्रवृत्ति, मतदान के अधिकार और केंद्रीय सेवाओं में शामिल होने जैसे कई अधिकार से वंचित थे। आर्टिकल 370 और 35 ए हटने के बाद से इन्हें ये अधिकार मिल सकेंगे। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 9 जून, 2018 को इन शरणार्थियों के लिए प्रति परिवार 5.50 लाख रुपया मुआवजा देने की भी घोषणा की थी।


1948, 1965 और 71 की जंग के दौरान और बढ़ी शरणार्थियों की संख्या

आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के दौरान, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के भिम्बर, बाग, मीरपुर, कोटली से 31,619 परिवार भारत के हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर में आए। इनमें से 26,319 परिवार जम्मू-कश्मीर राज्य में बसे और 5,300 परिवार देश के अन्य हिस्सों में चले गए। चांब नियाबत क्षेत्र से 1965 की जंग में 3,500 परिवार और 1971 के युद्ध के दौरान 6,565 परिवार विस्थापित हुए थे।


मोदी सरकार सेमिली मदद: 30 नवंबर 2016 को मोदी कैबिनेट ने इन सभी परिवारों को मुआवजा देने का ऐलान किया। इनमें केवल वे 5,300 परिवार शामिल नहीं थे जो देश के अन्य हिस्सों में चले गए थे। हालांकि इनमें से जो परिवार वापस आकर जम्मू-कश्मीर में बस गए, उन्हें इस पैकेज का फायदा मिला।


1957 में पंजाब से दलितों को लाकर यहां बसाया गया

1957 में पंजाब से बड़ी संख्या में दलितों को यहां लाया गया। इन परिवारों को जम्मू नगरपालिका में स्वीपर के काम के लिए लाया गया था। राज्य सरकार ने तब इन्हें नागरिकता देने का वादा किया था,लेकिन इन्हें कभी स्थायी निवास प्रमाण पत्र (PRC) नहीं दिया गया। ये केवल स्वीपरके पद के लिए ही आवेदन कर सकते थे। यानी इन युवाओं के पास एक ही विकल्प था, झाड़ू उठाओ और सड़कों और जम्मू की गंदी गलियों को साफ करो।


1990 में 57,000 कश्मीरी परिवार घाटी छोड़कर भागे थे

कश्मीर घाटी में 1990 के समय उग्रवाद चरम पर था, तब कश्मीरी पंडित परिवारों के साथ-साथ सिखों और मुसलमानों के लगभग 57,000 परिवारों ने जम्मू, दिल्ली और देश के अन्य स्थानों की ओर पलायन किया। वर्तमान में देश में लगभग 60,452 रजिस्टर कश्मीरी प्रवासी परिवार हैं। इनमें से 38,119 जम्मू में और लगभग 19,338 दिल्ली में रह रहे हैं। इनके अलावा लगभग 1,995 परिवार अन्य राज्यों में बसे हैं।


कश्मीरी पंडितों को फिर से घाटी में बसाने की योजना: कश्मीरी पंडितों को फिर से घाटी में बसाना मौजूदा सरकार की घोषित नीति रही है। इन्हें मासिक राहत राशि भी दी जाती रही है। मई 2015 तक यह राशि 6,600 रुपए प्रति परिवार थी, जिसे बढ़ाकर 10,000 रुपए प्रति परिवार कर दिया गया। जून 2018 में इसे 13,000 रुपए कर दिया गया। भारत सरकार दिल्ली एनसीआर में बसे कश्मीरी प्रवासियों के लिए भी मासिक राहत राशि जारी करती है।


इन परिवारों के लिए कई अन्य योजनाएं भी घोषित होती रहीं। 7 नवंबर 2015 को घोषित एक विकास पैकेज के तहत, भारत सरकार ने 1080 करोड़ रुपए की लागत से कश्मीरी प्रवासियों के लिए 3,000 अतिरिक्त राज्य सरकारी नौकरियों को मंजूरी दी थी। इसके साथ ही 920 करोड़ से 6000 ट्रांसिट आवास के निर्माण को भी मंजूरी दी गई। 2004 की एक योजना के तहत, जम्मू में पुरखु, मुथी, नगरोटा और जगती में 5242 दो कमरों के घरों का निर्माण कराया गया और इन्हें उन प्रवासियों को आवंटित किया गया, जो एक कमरे के घरों में रहते थे।


जम्मू के लोगों ने सभी को दिल में बसाया

जम्मू के लोगों ने हर बार विस्थापितों को बसाने में मदद की। पाकिस्तान से आए शरणार्थी यहां 70 साल से रह रहे हैं। 1990 के बाद कश्मीरी पंडितों को भी इन्होंने खाली मैदान सौंप दिए। आतंकवादी-प्रभावित क्षेत्रों जैसे डोडा, किश्तवाड़, राजौरी, पुंछ और कुछ अन्य स्थानों के परिवार भी जम्मू में आते गए। जम्मू ने इन सभी को अपने दिल में जगह दी। यहां सबसे ज्यादा असर कश्मीरी संस्कृति का दिखता है। कश्मीरी पहनावे से लेकर खान-पान की चीजें जम्मू की आदतों में शुमार हो गई हैं। जम्मू के स्थानीय डोगरा बताते भी हैं कि, ‘कश्मीरी व्यंजनों के बिना शादी समारोह भी अधूरा लगता है।’


म्यांमार के अवैध अप्रवासी की बढ़ती संख्या ने चिंता भी बढ़ाई

10 फरवरी, 2018 को जब आतंकवादियों ने सेना के सुंजवान कैंप पर हमला किया, तब सुरक्षा बलों ने चिंता जताई थी कि इन आतंकवादियों को रोहिंग्याओं ने शरण दी होगी। दरअसल इस साल 2 फरवरी को राज्य विधानसभा में जम्मू-कश्मीर गृह विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक इस क्षेत्र में मिलिट्री स्टेशन के पास 48 राहिंग्या परिवारों के 206 सदस्य अपने शिविर बना रहे थे। हालांकि, किसी भी स्पष्ट सबूत के अभाव में सुरक्षा एजेंसियों द्वारा फिदायीन समूह के सदस्यों को शरण देने में उनकी संभावित भागीदारी के बारे में किसी भी अवैध अप्रवासियों की जांच नहीं की गई।


इस रिपोर्ट के मुताबिक, जम्मू और कश्मीर के पांच जिलों के 39 अलग-अलग स्थानों पर कुल 6,523 रोहिंग्याओं के शिविर मिले थे। इनमें से 6461 शिविर जम्मू में और 62 शिविर कश्मीर में थे। पिछले साल रोहिंग्याओं की वास्तविक संख्या का डेटा जुटाने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस ने एक विशेष अभियान शुरू किया था। केंद्र सरकार के निर्देश पर यह अभियान शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य रोहिंग्याओं को उनके देश वापस भेजने के लिए उनका बायो मेट्रिक्स डेटा लेना था। यह डेटा जुटाने के दौरान पुलिसकर्मियों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें अप्रवासियों के विरोध का सामना करना पड़ा।


कचरा बीनने और सीवरेज लाइन बिछाने का काम करते हैं रोहिंग्या:अधिकतर रोहिंग्या कचरा बीनने और साफ-सफाई के काम करते हैं। स्थानीय ठेकेदारों इन्हें केबल और सीवरेज लाइन बिछाने के लिए मजदूरी पर रखते हैं। महिलाएं फैक्ट्रीयों में काम करती हैं।भटिंडी क्षेत्र में इनका अपना बाजार है। यहां युवा एक साथ बैठेअपने मोबाइल फोन पर गेम खेलते और टीवी देखते देखे जाते हैं। युवा यहां इलेक्ट्रॉनिक सामान और मोबाइल फोन सुधारने की दुकानें भी चलाती हैं। कुछ रोहिंग्या ताज़ी सब्जी के ठेले और मांस की दुकानें लगाते हैं। इनके शिविरों में मस्जिदें भी हैं और कश्मीरी एनजीओ द्वारा संचालित स्कूल भी खुले हुए हैं। बच्चे सरकारी स्कूलों और स्थानीय मदरसे में भी पढ़ते हैं।



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Jammu as a city of refugees


source https://www.bhaskar.com/db-originals/news/jammu-as-a-city-of-refugees-126351405.html

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