जनरल सुलेमानी की खाड़ी देशों में कट्टरपंथियों को रोकने में अहम भूमिका, अमेरिका ने अलकायदा-आईएस को खड़ा किया
इंटरनेशनल डेस्क.अमेरिका ने इराक में ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी को 3 जनवरी को मार गिराया। इसके बाद ईरान ने इराक स्थित अमेरिकी सैन्य बेसों पर हमला किया। इसके बाद से दोनों देशों में तनाव है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका हमेशा से नाराजगी जताता रहा है। ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी एटमी कार्यक्रम जारी रखने की बात कह चुके हैं। ईरान-अमेरिका संबंध, ईरान के खाड़ी देशों के रिश्ते पर कीर्तिवर्धन मिश्र ने तेहरान यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और अमेरिकी मामलों के जानकार मोहम्मद मरांडी से बात की।
सवाल:मीडिया रिपोर्ट्स में हमने देखा कि अब तक जनरल सुलेमानी का किरदार काफी नकारात्मक तौर पर पेश किया। उनकी छवि ऐसी गढ़ी गई, जैसे वे कई लोगों के हत्यारे रहे हों?
मरांडी:पश्चिमी मीडिया हमेशा से अपनी सरकारों के लिए ही काम करता रहा है। अंदरूनी मामलों में वह कोई भी पक्ष ले, लेकिन विदेश संबंधों के मामले में वे जाहिर तौर पर देश की सरकार के पक्ष में ही बात करते हैं। अमेरिका और सऊदी ने अफगानिस्तान में अलकायदा को जन्म दिया। उन्होंने सीरिया में हित साधने के लिए असद सरकार के खिलाफ अलकायदा और आईएस को खड़ा करने में मदद की। पहले उन्होंने सद्दाम हुसैन को रासायनिक हथियार दिए। फिर सद्दाम पर इन हथियारों को अपनी ही जनता के खिलाफ इस्तेमाल करने का आरोप लगाया। इराक पर हमले के साथ इतने सालों में उसे तबाह कर दिया। इन सालों में अमेरिका खुफिया एजेंसी सीआईए ने स्थानीय एजेंसियों (सऊदी अरब) के साथ मिलकर सीरिया और इराक में कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया। 2012 की अमेरिकी डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (डीआईए) की रिपोर्ट से पता चलता है कि सीरिया में जो आतंकी संगठन थे, वे सभी वहाबी विचारधारा वाले कट्टरपंथी थे और सऊदी अरब-यूएई के साथ अमेरिका उनका समर्थन कर रहा था। संगठनों का मकसद था कि वे सीरिया-इराक के बीच एक ऐसा राज्य (सलाफी स्टेट) बना लें, जहां कट्टर इस्लामिक कानून लागू होते हों। डीआईए के तत्कालीन प्रमुख जनरल माइकल फ्लिन ने कुछ समय बाद खुलासा किया था कि अमेरिका ने पश्चिमी एशिया में अपने साथियों (सऊदी अरब, कतर और यूएई) के लिए इन कट्टरपंथियों का समर्थन करने का फैसला किया। विकिलीक्स ने हिलेरी क्लिंटन के ईमेल से खुलासा किया था कि उन्होंने 2014 में विदेश मंत्री रहते हुए कहा था कि सऊदी अरब और कतर आईएस को समर्थन कर रहे हैं। इसी तरह तत्कालीन उपराष्ट्रपति जो बिडेन के 2014 में हार्वर्ड में दिए गए भाषणों से भी हमें यही जानकारी मिलती है।
‘‘जनरल सुलेमानी ने कट्टरपंथियों को सीरिया में असद सरकार को नुकसान पहुंचाने और आईएस को इराक पर कब्जा करने से रोका। सुलेमानी को इराक में बगदाद और कुर्द बहुल इलाकों को आईएस से बचाने के लिए भेजा गया। यहीं से जनरल सुलेमानी की भूमिका साफ होती है। जहां अमेरिका ने अलकायदा और आईएस के खड़े होने में भूमिका निभाई और अफगानिस्तान, सीरिया और इराक को तबाह किया, वहीं सुलेमानी ने ईरान को सद्दाम के हमले से बचाया। उन्होंने कट्टरपंथियों को सीरिया और इराक पर कब्जा करने से रोका। उन्होंने लेबनान की इजराइल से जमीन वापस पाने में मदद की। इसके अलावा उन्होंने गाजा में भी फिलिस्तीनियों को अपनी रक्षा करना सिखाया। जाहिर है कि अमेरिका के खिलाफ इतने कदम उठाने वाला व्यक्ति उसका और उसके साथियों (इजराइल और सऊदी) का दुश्मन ही होगा। इसलिए अमेरिका ने सुलेमानी की पूरी दुनिया में खराब छवि गढ़ने की कोशिश की। ईरान, इराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन और यमन के लोगों के लिए वे हीरो हैं।’’
सवाल:ट्रम्प ने हाल ही में कहा था कि रेवोल्यूशनरी गार्ड्स ने भारत से लेकर लंदन तक पर हमले की साजिश रची थी? उनका यह बयान क्या दर्शाता है?
मरांडी: डोनाल्ड ट्रम्प वे आदमी हैं, जिनका हर दूसरा दावा झूठा होता है। ट्रम्प ने तो सुलेमानी के इराक दौरे के बारे में भी झूठ बोला था। अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा था कि सुलेमानी इराक में अमेरिकी ठिकानों और राजनयिकों पर हमला करने पहुंचे थे। जबकि इराक के राष्ट्रपति आदिल अब्दुल महदी संसद में कह चुके हैं कि सुलेमानी उनसे मिलने आए थे। सुलेमानी सऊदी अरब के बारे में एक मामले पर चर्चा करना चाहते थे। वे चाहते थे कि इराकी राष्ट्रपति ईरान-सऊदी अरब के विवादों में मध्यस्थता करें। इराकी राष्ट्रपति ने यह तक कहा कि अमेरिका को इस बारे में मालूम था। ट्रम्प ने उन्हें इस जानकारी के लिए शुक्रिया भी कहा। लेकिन अमेरिका ने क्या किया। उन्होंने सुलेमानी और इराक के युद्ध के समय के हीरो रहे जनरल मुहंदिस की बगदाद एयरपोर्ट पर हत्या कर दी। यह ईरान के खिलाफ युद्ध का ऐलान था। साफ है कि पश्चिमी मीडिया ने इराकी राष्ट्रपति के इन बयानों को प्रमुखता से नहीं छापा। ईरान मामलों में पश्चिम मीडिया पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता।
सवाल: पश्चिम एशिया में तनाव पैदा करने में अमेरिका के साथी सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की क्या भूमिका है। क्या उन्हें ईरान के कमजोर होने से कोई फायदा है?
मरांडी: अगर पश्चिम एशिया में तनाव ज्यादा बढ़ता है, तो इसके नतीजे घातक होंगे। इससे सबसे ज्यादा नुकसान सऊदी अरब और यूएई को ही उठाना पड़ेगा। अमेरिका ने ईरान पर हमले की कोशिश की और उन्हें माकूल जवाब मिला। अमेरिका की तैयारी इतनी कम थी कि वे ईरान की एक मिसाइल को इंटरसेप्ट नहीं कर पाए। सैटेलाइट इमेज में भी दिखा कि ईरान ने जहां हमला किया, उन टारगेट्स को नुकसान पहुंचा (अमेरिकी सैनिकों ने हाल ही में कहा है कि वह खुशनसीब हैं कि वे ईरान के हमले से बच गए)। अमेरिका जानता है कि क्षेत्र में ईरान से सीधा युद्ध नहीं लड़ा जा सकता। इन हमलों के बाद साफ हो गया कि क्षेत्र में मौजूद अमेरिका के सभी ठिकाने ईरान की जद में हैं। ईरान ने चेतावनी दी कि जो भी देश अमेरिकी बेसों को जगह देगा, युद्ध की स्थिति में वे दुश्मन की तरह देखे जाएंगे। ईरान की मजबूत रक्षा क्षमताओं और अमेरिका से टक्कर लेने की ताकत देखकर सऊदी और यूएई पहले ही डरे हुए हैं। वे जानते हैं कि अगर युद्ध हुआ तो वे कुछ दिनों से ज्यादा नहीं टिक पाएंगे।
सवाल: क्या अमेरिका-ईरान के बीच तनाव इराक के लिए नई मुश्किलों की शुरुआत है?
मरांडी: अमेरिका की वजह से इराक करीब 40 साल से बुरी तरह प्रभावित रहा। अमेरिका ने सद्दाम की मदद की, फिर उस पर आरोप लगाकर इराक पर हमला कर उसे तबाह किया। उन्होंने अभी तक इराक नहीं छोड़ा। वे सरकार की अनुमति के बगैर भी इराकी सेना पर हमला करते हैं। वे इराक की स्वायत्ता को तोड़ रहे हैं। वे इराक के साथ किए समझौतों को तोड़ रहे हैं। जनरल सुलेमानी की मौत के बाद अब इराकी संसद, इराकी सेना, इराक के राजनेताओं और अफसरों तक ने उन्हें इराक छोड़ने के लिए कह दिया है। ऐसे में अब अगर अमेरिका इराक नहीं छोड़ता, तो उसके खिलाफ सैन्य विद्रोह हो सकता है। एक दशक पहले जब इराक में अमेरिका के 2 लाख सैनिक थे, तब भी वह इराक के एक छोटे विद्रोही समूह का सामना नहीं कर पाया था। अब अमेरिकी की सेना छोटी है और उसके सामने इराक की बड़ी सेना है। इसलिए अमेरिका के लिए समझदारी होगी कि वे एक देश को अपने हाल पर छोड़ दे।
सवाल: भारत अब तक अमेरिका और ईरान का अच्छा दोस्त रहा है, दोनों देशों के तनाव के बीच भारत की क्या भूमिका है?
मरांडी: कई बार जब भारत ट्रम्प की बात मानते हैं, तो उसे नुकसान उठाना पड़ता है। क्योंकि ट्रम्प भारतीय नहीं, बल्कि अमेरिकी हितों के लिए जिम्मेदार हैं। अगर भारत ज्यादा ताकतवर होगा, तो यह अमेरिका के लिए परेशानी है। इसलिए जरूरी है कि भारत ईरान के साथ मजबूत और करीबी संबंध बनाए रखे। ईरान ने लंबे समय तक भारत की तेल की जरूरतें पूरी की हैं (ईरान ने भारत को पेमेंट रुपए में करने की छूट दी थी)। अब तेल के लिए सिर्फ सऊदी और यूएई पर निर्भर हो जाना जोखिम भरा है। क्योंकि अगर वहां आंदोलन या परेशानियां खड़ी होती हैं, तो भारत को बड़ी परेशानी होगी। सऊदी शासन दुनियाभर में वहाबी विचारधारा का भी प्रसार करता है, जो कि किसी भी देश के स्थायित्व के लिए काफी घातक है।
भारत अगर हर मामले में अमेरिका के दबाव में आएगा, तो उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। भारत की मजबूती इसी में है कि उसकी विदेश नीति स्वतंत्र रहे। भारत को कभी महात्मा गांधी की विरासत नहीं छोड़नी चाहिए। क्योंकि वे गांधी ही थे, जिन्होंने भारत को दुनियाभर में साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ लड़ाई में एक ऊंचा स्थान दिलाया। गांधीजी ने भारत के लिए दक्षिण एशियाई देशों के सहयोग की नीति निकाली। हालांकि, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोगों को भारत को गांधीजी के विचारों पर चलते देखना पसंद नहीं।
सवाल: अगर ईरान को लगता है कि पश्चिमी देश और मीडिया उसके खिलाफ प्रोपेंगैंडा फैला रहे हैं, तो इससे निपटने के क्या उपाय हैं?
मरांडी: अमेरिका की फिल्म इंडस्ट्री भी देश के मामले में एकजुट है, क्योंकि सरकार हॉलीवुड के साथ करीब से काम करती है। अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री ने मुस्लिम देशों में से अब तक सिर्फ ईरान की ही खराब छवि पेश की है, क्योंकि ईरान एक ताकतवर देश है और उसे नहीं सुनता। अमेरिका को पता है कि वह कभी नहीं झुकेगा। इसलिए उन्हें ईरान से अजीब तरह की परेशानी है। अमेरिका के इस प्रोपेगैंडा से निपटने का एक ही तरीका है। वह यह कि हमें अपनी सरकारी और प्राइवेट मीडिया को मजबूत बनाना होगा। इसके अलावा हमें उन देशों के साथ जुड़ना होगा, जो पश्चिमी और यूरोप के दृष्टिकोणों पर निर्भर न हों।
सवाल: जनरल सुलेमानी की मौत का राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?
मरांडी: हमने इराक और ईरान में जनरल सुलेमानी के सुपुर्दे-खाक से पहले के जुलूस को देखा। वे दोनों ही देशों में काफी लोकप्रिय थे। उन्होंने इराक को कट्टरपंथी आईएस से आजाद कराया। वे सालों तक लड़े। तेहरान में भी उनके जनाजे में 50 लाख के करीब लोग मौजूद थे, जो कि एक वर्ल्ड रिकॉर्ड था। इससे पता चलता है कि पश्चिमी प्रोपेगैंडा के उलट जनरल सुलेमानी को सेना के ही नहीं आम लोग भी प्यार करते थे (अमेरिका ने चलाया था कि जनरल सुलेमानी पर्दे के पीछे रह कर काम करते थे)। लोग उनके प्रति शुक्रगुजार थे। साफ है कि लोगों का राजनीतिक सिस्टम पर भी पूरा भरोसा है। ईरान के आंदोलन देखकर अमेरिका और यूरोप हमेशा जनता को सरकार के विरुद्ध दिखाते हैं। लेकिन तस्वीर कुछ और है।
‘‘इराक में सुलेमानी के जनाजे की भीड़ को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि जनरल सुलेमानी इराक में कितने लोकप्रिय थे। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि इराक में जनरल सुलेमानी की मौत पर खुशी मनी। लेकिन उन्होंने जनाजे की भीड़ को नहीं देखा। इससे यही दिखा कि इराक में ईरानियों को लेकर कितना प्रेम मिलता है। इराक के कुछ लोग ईरान से नफरत करते हैं। लेकिन ये वही लोग हैं, जिन्हें जनरल सुलेमानी ने धूल चटाई।’’
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source https://www.bhaskar.com/international/news/general-suleimanis-key-role-in-stopping-radicals-in-gulf-countries-us-stands-al-qaeda-is-126511144.html
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