दिल्ली की पत्थरबाजी श्रीनगर से भी खतरनाक थी, ऊंची छतों पर खड़े दंगाइयों ने मुश्किल खड़ी कर दी थी
नई दिल्ली. 23 फरवरी को राजधानी की सड़कों पर शुरू हुई हिंसा 24 और 25 को विकराल हो गई थी। भजनपुरा, करावल नगर, बाबरपुर, मौजपुर, गोकुलपुरी और चांदबाग जैसे हिंसाग्रस्त इलाकों में जगह-जगह आगजनी हो रही थी। गाड़ियां फूंक दी गईं थीं। राहगीरों को मारा जा रहा था। दुकानों का शटर तोड़कर आग लगाई जा रही थी। इस दौरान स्थानीय लोगों ने लगातार पुलिस को फोन किया, लेकिन पुलिस से कोई जवाब नहीं मिल रहा था। 26 फरवरी को जब दैनिक भास्कर करावल नगर की मेन रोड पर पहुंचा तो वहां हर तरफ तबाही का मंजर नजर आ रहा था।
बड़ी संख्या में सुरक्षा बल तैनात थे। इनमें सीआरपीएफ के जवानों की संख्या सबसे ज्यादा थी। 26 को सुरक्षाबलों ने हिंसा पर काबू पा लिया था। जगह-जगह जवान मार्च निकाल रहे थे और भीड़ को इकट्ठा नहीं होने दे रहे थे। पत्थरबाजी को रोकने के लिए सीआरपीएफ ने ऐसे अफसरों को हिंसक इलाकों में तैनात किया, जिन्हें इस तरह की परिस्थितियों का अनुभव हो। इन्हीं में से एक कमांडेंट भावेश चौधरी को 24 और 25 तारीख को हिंसाग्रस्त इलाकों में भेजा गया। चौधरी पत्थरबाजी के लिए कुख्यात श्रीनगर के डाउन टाउन में 2013 से 2017 तक तैनात रह चुके हैं और अभी उनकी पोस्टिंग मेरठ में है।
दिल्ली हिंसा को लेकर कई सवाल खड़े हुए हैं। पहला तीन दिन तक हुई पत्थरबाजी को रोकने में सुरक्षाबल नाकाम क्यों हुआ? पत्थरबाजी का जो पैटर्न पहले दिन था, वही दूसरे दिन भी था। इसके बावजूद सुरक्षाबल पत्थरबाजों को क्यों नहीं रोक सके?
सीआरपीएफ के अधिकारी कहते हैं कि दिल्ली दंगों के दौरान हुई पत्थरबाजी श्रीनगर में होने वाली पत्थरबाजी से भी खतरनाक थी। दिल्ली में ऊंची-ऊंची छतों से पत्थर बरसाए जा रहे थे, जबकि श्रीनगर में इतनी ऊंची छतें नहीं होतीं। इस वजह से यहां पत्थरबाजों पर तुरंत काबू पाने में मुश्किल आई। हिंसा पर तुरंत इस वजह से भी काबू नहीं पाया जा सका, क्योंकि कई जगह एक साथ हिंसा शुरू हुई थी। फोर्स को एक जगह से दूसरी जगह मूव होना पड़ रहा था। ऐसे में जिस जगह से फोर्स थोड़ी देर के लिए भी हटती, वहां दोबारा हिंसा शुरू हो जाती। सभी जवान ऐसे नहीं थे, जो इन विषम परिस्थितियों का सामना कर सकें। सिर्फ रैपिड एक्शन फोर्स के जवान ही ऐसे थे, जो इन हालात के लिए ट्रेंड और इक्विप्ड थे। इसलिए जहां ज्यादा हिंसा हो रही थी, वहां पहले आरएएफ की टुकड़ी को भेजा जा रहा था। आरएएफ के बाद दूसरी फोर्स के जवान मोर्चा संभाल रहे थे।
पुलिस इंटेलीजेंस नाकाम रहा
दिल्ली का दंगा पुलिस के इंटेलीजेंस का फेल्योर रहा। दंगा करने वाले दोनों ही पक्षों ने बड़ी संख्या में ईंटा-पत्थर जुटा लिए थे। ताहिर हुसैन की बिल्डिंग पर तेजाब से लेकर गुलेल और कारतूस तक जमा थे, फिर भी पुलिस को भनक नहीं लग सकी। हैरत की बात ये है कि 24 फरवरी को ताहिर हुसैन की बिल्डिंग से दंगाइयों ने जमकर उत्पात मचाया था। फायरिंग की, तेजाब फेंका और ईंट-पत्थर भी फेंके थे। इसी दिन ताहिर का एक वीडियो भी वायरल हुआ था, जिसमें वहबिल्डिंग के पिछले दरवाजे से भागता हुआ नजर आया था। इसके बाद 24 फरवरी की रात को ही पुलिस ने इस बिल्डिंग की छानबीन की थी।
ताहिर हुसैन ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में ये भी बताया कि उसने 24 फरवरी को अपनी बिल्डिंग छानबीन के बाद पुलिस के हवाले कर दी थी, फिर 25 को यहां इतना मटेरियल कैसे आ गया कि दिनभर इस बिल्डिंग से दंगाई उत्पात मचाते रहे। 26 को दैनिक भास्कर टीम जब ताहिर के घर पर पहुंची थी, तब भी बड़ी मात्रा में ईंट-पत्थर, गुलेल, कोल्ड ड्रिंक्स की बोतल, पेट्रोल बम यहां हमें मिले थे। ऐसे में दिल्ली पुलिस की छानबीन पर ही सवाल खड़े होते हैं। क्या पुलिस की छानबीन के बाद देर रात मटेरियल इकट्ठा किया गया? ये भी इसलिए मुमकिन नहीं लगता, क्योंकि 25 की रात सुरक्षाबल सड़कों पर तैनात थे। सीआरपीएफ के अधिकारियों का भी मानना है कि इस मामले में पुलिस का इंटेलीजेंस फेल्योर तो रहा ही है, वरना दंगाई इतनी सामग्री नहीं जुटा पाते। अगर ऐसा हो भी गया था तोपुलिस को पहले ही इसकी भनक लगनी थी।
पूरी तरह से ऑर्गनाइज्ड था दंगा
सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारियों ने नाम न छपने की शर्त पर कहा कि यह दंगा पूरी तरह से ऑर्गनाइज्ड था। ऐसा क्यों? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जिस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्पआए, उसी दिन दंगा शुरू हुआ। दिल्ली के साथ ही उसी दिन अलीगढ़ में भी हिंसा हुई। जिस हिसाब से पत्थरबाजी हुई, उससे पता चलता है कि पत्थर काफी पहले से इकट्ठा किए गए। पेट्रोल बम से लेकर पिस्तौल तक दंगाइयों के पास थी। ये सब चीजें अचानक नहीं आ सकतीं। दंगा भी लंबे समय तक चला। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर हमला किया।
कई मौके ऐसे आए, जब फोर्स मौके पर थी ही नहीं?
इस पर अधिकारी बोले कि पहले दिन फोर्स की संख्या कम थी। एक साथ कई जगहों से कॉल आ रहे थे। कई बार ऐसा हुआ कि फोर्स कुछ इलाकों में नहीं रही, लेकिन अगले दिन संख्या बढ़ते ही पूरे हिंसाग्रस्त इलाके में फोर्स तैनात हो गई थी। उन्होंने बताया कि कुछ टुकड़ियों ने 24 घंटे बिना सोए काम किया। कई घंटों तक खाना भी नहीं खाया, क्योंकि दंगाग्रस्त इलाके में ऐसी परिस्थिति ही नहीं थी कि खाना खा सकें। एक टुकड़ी जयपुर से रातभर का सफर करके आई थी और सुबह से ड्यूटी पर लग गई। 24 घंटे बाद दूसरी टुकड़ी के आने पर उन जवानों को कुछ घंटों का चैन मिल सका।
भीड़ के अलग-अलग कम्पोनेंट थे, सबसे पहले सीधे हमला करने वालों को काबू किया
आरएएफ का नेतृत्व करने वाले एक अधिकारी ने बताया कि भीड़ में भी अलग-अलग कम्पोनेंट थे। जैसे एक कम्पोनेंट ऐसा होता है, जो सीधे हमला करता है। ये हमला करने की सोचकर ही आते हैं। यही सबसे आगे होते हैं। इनके पीछे ऐसे लोग होते हैं, जो खड़े तो होते हैं, लेकिन पुलिस या फोर्स के आते ही भागना शुरू कर देते हैं। इन दोनों के पीछे तीसरा हिस्सा समर्थकों का होता है। ये लोग हमला नहीं करते, लेकिन नारेबाजी और हल्ला करके आगे वालों को उकसाते हैं। दिल्ली में हुए दंगों में भी यह पैटर्न देखने को मिला। इन हालात में फोर्स पहले सीधा हमला करने वालों पर काबू करती है। बाकी लोग वैसे ही भाग जाते हैं।
सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकार ने बताया कि इन हालात में उन्हीं अधिकारियों को फील्ड का जिम्मा दिया जाता है, जो ऐसे हालातों के अनुभवी होते हैं। दिल्ली में भी यही किया गया। अधिकारी ने बताया कि दंगों में कोल्ड ड्रिंक्स की बोतल इस्तेमाल की जाती है। यह आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं और इनका कांच मोटा होने की वजह से गहरा जख्म देता है। पेट्रोल आसानी से मिल ही जाता है। कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पेट्रोल भरकर फेंका जाता है। इसमें खर्च कम और तबाही ज्यादा होती है।
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